इस चुनाव में क्यों नहीं सुनने को मिल रहे नारे…
लोकसभा चुनाव के पहले दौर के लिए संपन्न मतदान हो चुका है पर इस बार अभी तक कोई नये खास नारे सामने नहीं आये हैं। इस बार चुटीले और तुरंत अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करने वाले नारों का कुल जमा अभाव दिखाई दे रहा है। नारे ही तो चुनावों की जान रहे हैं। नारों के बिना चुनाव का आनंद आधा-अधूरा सा ही रहता है। पिछले 2014 में भाजपा का नारा था- ‘मोदी जी आएंगे, अच्छे दिन लाएंगे’। तब भाजपा का एक और चर्चित नारा भी था- अबकी बार मोदी सरकार’। भाजपा ने 2019 में फिर लगभग इसी नारे को आगे बढ़ाया है। इस बार का नारा है- ‘फिर एकबार, मोदी सरकार’। इस बार भाजपा मोदी है तो मुमकिन है और भारत नया बनाने दो, मोदी को फिर से आने दो जैसे नारे लेकर भी आई है।
माकपा ने देश को मोदी सरकार की नीतियों से मुक्त कराने की रणनीति को लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान के केंद्र में रखते हुए इस बार, मोदी बेरोजगार नारे को प्रचार का मूलमंत्र बनाया है। पर ये नारे कतई पर्याप्त नहीं माने जा सकते हैं। नारों से चुनाव का माहौल बनता है। एक ऐसा भी दौर था जब सभी दलों के कार्यकर्ता अपनी रैलियों में अपने दलों के नारे लगाते थे। उन्हें ही दिवारों पर नारे लिखकर रंगने के लिए कहा जाता था । उन्हीं नारों के साथ दिवारों पर पोस्टर भी चिपकाए जाते थे। हालांकि दीवारों को रंगने या पोस्टर लगाने का समय अब तो जा चुका है। परनए-नए नारों को बनाने से कौन रोक रहा है, या कानूनन रोक सकता है? बहरहाल, 2019 का लोकसभा चुनाव तो नारों के लिहाज से खासा कमजोर ही माना जाएगा। दरअसल नए-नए नारों के लिहाज से आपात काल के बाद 1977 में हुआ आम चुनाव याद रखा जाएगा। तब सन सतहत्तर की ललकार, दिल्ली में जनता सरकार, संपूर्ण क्रांति का नारा है, भावी इतिहास हमारा है, फांसी का फंदा टूटेगा, जार्ज हमारा छूटेगा, नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा, संजय बंसीलाल, बच्चे बच्चे की जुबान पर थे। जनता पार्टी सरकार कलह क्लेश की शिकार होने के कारण गिर गई थी। इसलिए 1980 में फिर से लोकसभा चुनाव हुआ था। तब कांग्रेस का एक नारा – आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा जी को लाएंगे। इसी के साथ और इंदिरा लाओ, देश बचाओ खूब हिट हो गया था। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिराजी तेरा नाम रहेगा, जैसेनारे ने पूरे देश में सहानुभूति लहर पैदा की, और कांग्रेस को बड़ी भारी जीत हासिल हुई।1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद राजीव तेरा ये बलिदान याद करेगा हिंदुस्तान खूब गूंजा और इसका असर भी वोटिंग पर देखा गया।
यदि बात 1952 में हुए पहले आम चुनाव की करें तो उसमें कोई खास नारे सामने नहीं आए थे। वो स्वतंत्र भारत का पहला आम चुनाव था। देश पहली बार मतदान करके अपनी सरकार को चुन रहा था। पर 1957 के आम चुनाव से नारों की ताकत सामने आने लगी। दूसरे आम चुनाव में गरीबी को केन्द्र में रखकर नारे सामने आए। तब पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मेरठ की एक सभा में देश की गरीबी और पिछड़ेपन का जिक्र करते हुए नारा दिया था- हमें छलांग मारनी है। उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने 1971 के आम चुनावों के दौरान अपना बहुर्चित गरीबी हटाओ का नारा दिया। कांग्रेस ने उस चुनाव में दो दर्जन से अधिक नारे दिए थे पर गरीबी हटाओ वाले नारे ने शेष नारों को पीछे छोड़ दिया था। तब इंदिरा गांधी ने कहा था- वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, इंदिरा कहती है गरीबी हटाओ: अब आप ही चुनिए इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए चुनाव में विपक्ष का नारा था इंदिरा हटाओ, देश बचाओ। अब 50 की उम्र पार कर गई पीढ़ियों को याद होगा कि1980 के चुनाव में कांग्रेस ने समय और परिस्थितियों के अनुसार नया नारा तैयार किया- सरकार वो चुनें, जो चल सके।
भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ ने भी राजनीति में कुछ अच्छे नारों का योगदान दिया है। इनमें से 1967 के आम चुनाब में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एक प्रमुख नारा दिया था हर हाथ को काम, हर खेत को पानी, हर रोगी को दवाई, हर बच्चे को पढाई जनसंघ की निशानी। भाजपा का 2004 लोकसभा चुनाव के समय दिया गया नारा इंडिया शाइनिंग चला तो खूब पर जमीन पर इसका असर नहीं हुआ था। उस चुनाव में यूपीए ने भाजपा को अप्रत्याशित रूप से हरा दिया था। भाजपा का 1998 के लोकसभा चुनाव के समय दिया गया नारा अबकी बारी, अटल बिहारी ने देशभर में धूम मचाई थी। एक और नारा जो इस दौरान काफी चर्चित हुआ था,राज तिलक की करो तैयारी, आ रहे हैं अटल बिहारी। 1991 में हुए चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने फिर से स्थायित्व को अपना हथियार बनाने की कोशिश की। कांग्रेस ने नारा दिया- स्थायित्व को वोट दें, कांग्रेस को वोट दें। यह चुनाव मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद हो रहा था। देश ने उसके कारण पैदा हुई हालात को झेला था। इसलिए कांग्रेस के नारे पर उन परिस्थितियों का भी असर पड़ा। कांग्रेस का एक नारा था- ना जात पर, ना पात पर, स्थिरता की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर। उस दौरान भाजपा ने नारा दिया था- सबको परखा, हमको परखो। उसका दूसरा नारा था- राम, रोटी और स्थिरता। यह राम मंदिर आंदोलन का असर था। बहुजन समाज पार्टी के नारे-तिलक,तराजू और तलवार, इनको मारों जूते चारने खासी कटुता भी पैदा की थी। हालांकि बाद के दौर में बसपा ने इस नारे को छोड़ एक नए नारे को अपनाया-हाथी नहीं गणेश है, ब्रहमा,विष्णु महेश है।लाठी उठावन,तेल पिलावन,भाजपा भगावन। लालू प्रसाद ने इसे भाजपा के खिलाफ खूब इस्तेमाल किया। पर याद रखिए कि नारे सिर्फ चुनावों के वक्त ही नहीं आते या उछाले जाते है। कुछ नारे देश हित में सामने आते हैं। उदाहरण के रूप में 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ जंग के बाद लालबहादुर शास्त्री का कालजयी नारा था – जय किसान, जय जवान। शास्त्री जी के नारे को संशोधित कर अटल बिहारी वाजपेयी ने 1998 में पोखरण विस्फोट के बाद नारा दिया था, जय जवान,जय किसान, जय विज्ञान। बहरहाल अभी लोकसभा चुनाव को सम्पन्न होने में वक्त है। इसलिए उम्मीद कीजिए कि देश की जनता को कुछ फड़कते हुए नारे सुनने को मिलेंगे। ये ही नारे तो जनता को किसी दलविशेष की तरफ खींचते हैं। ये चुनावों का अभिन्न अंग हैं। नारों की समृद्ध परंपरा कभी खत्म नहीं होनी चाहिए।
शास्त्री जी के नारे को संशोधित कर अटल बिहारी वाजपेयी ने 1998 में पोखरण विस्फोट के बाद नारा दिया था, ह्यजय जवान,जय किसान, जय विज्ञान। बहरहाल अभी लोकसभा चुनाव को सम्पन्न होने में वक्त है। इसलिए उम्मीद कीजिए कि देश की जनता को कुछ फड़कते हुए नारे सुनने को मिलेंगे। ये ही नारे तो जनता को किसी दलविशेष की तरफ खींचते हैं।
सौरभ सिंह